
अंकित द्विवेदी | वैसे तो कई समुदायों और व्यावसायिक संस्थानों की अपनी अदालत है, लेकिन आदिवासी समुदाय की इससे आगे अपनी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट भी है। समुदाय की स्थानीय अदालत के फैसले को हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। इसका मकसद समाज के लोगों को पुलिस के पचड़े और मुकदमेबाजी के फिजूल खर्चों को बचाना है। एक खास बात यह भी है कि बिना पंचों की सहमति के पुलिस थाने और कचहरी जाने वालों को बतौर दंड सामाजिक बहिष्कार या सामूहिक भोज कराने की सजा भी दी जाती है।
इन सामाजिक अदालतों का बकायदा वर्गीकरण भी किया गया है। इसमें निचली कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का गठन किया गया है। किस शहर और कस्बे में कौन सी अदालत कब लगेगी इसका चार्ट भी तय है। सरगुजा जिले में इनकी हाईकोर्ट और जशपुर के दीपू बगीचा में इनकी सुप्रीम कोर्ट है। हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में हर छह महीने में फैसले किए जाते हैं। इसके अलावा दूर का मामला होने पर वहां के पंचों को फैसला करने के लिए पत्र जारी कर अधिकार सौंप दिया जाता है। इन अदालतों में आदिवासी समाज के मामलों की सुनवाई कर सजा सुनाई जाती है। अदालत में जज के रूप में समाज के 5 लोगों को चुना जाता है।
यह है अदालतों का स्वरूप सभी प्रकृति के नाम पर
आदिवासी समाज के सभी वर्गों की अदालतों के नाम अलग-अलग हैं। इनमें उरांव समाज में पड़हा, गोंड में भूमकाल, मुंडा में मानकी व संथाल में परगना कहते हंै। सभी वर्गों की उच्च स्तरीय अदालतें हैं। इसमें उरांव समाज की गांव स्तर पर लगने वाली अदालत को अतका पड़हा, तहसील या जिले स्तर की अदालत को डढ़हा पड़हा, राज्य स्तर पर पादा पड़हा व राष्ट्रीय स्तर पर राजी पड़हा कहलाती है। सभी नाम प्रकृति के आधार पर रखे हैं। इसमें अतका का अर्थ पेड़ की पत्ती, डढ़हा का अर्थ डाली, पादा का अर्थ जड़ और राजी का अर्थ संपूर्ण पेड़ है।
इन मामलों की होती है अदालत में सुनवाई
समाज के वरिष्ठ लोगों ने बताया अदालतों में अधिकांश विवाद जमीन से संबंधित निपटाए जाते हैं। इसमें आपसी समझौते के आधार पर दोनों पक्षों की रजामंदी ली जाती है। लड़का-लड़की भागने के मामले भी निपटाते हैं। इसमें किसी अन्य समाज का लड़का या लड़की होने पर उनके समाज के लोगों को भी पंचों के रूप में प्रतिनिधित्व दिया जाता है। तलाक या सामान्य मारपीट के मामले आपसी सामंजस्य से निपटाते हैं। समाज के लोगों ने बताया कि गंभीर किस्म के अपराध सामने आने पर पीड़ित पक्ष को थाने जाने के लिए कहा जाता है।
सरकारी अदालतें भी समाज के फैसलों का करती हैं अध्ययन
सर्व आदिवासी समाज के संभागीय अध्यक्ष अनूप टोप्पो ने बताया कि समाज की अदालतों से असंतुष्ट लोग सरकारी अदालत में जा सकते हैं, लेकिन सरकारी अदालतें भी समाज की कोर्ट में किए गए फैसलों का अध्ययन करती हैं। इस दौरान वह समाज के प्रतिनिधियों से केस से संबंधित सभी साक्ष्य और वहां पर हुई सुनवाई को अपने यहां भी शामिल करती हैं। अधिकांश मामलों में सरकारी अदालतों का भी फैसला वही रहता है, जो समाज की कोर्ट में दिया गया होता है।
पद्मश्री पुरस्कार से नवाजे जा चुके हैं अदालत के जज
अनूप टोप्पो ने बताया झारखंड निवासी सीमोन उरांव पड़हा राजा के नाम से विख्यात हैं। वह हजारों केस की सुनवाई कर उन पर फैसला सुना चुके हैं। पानी संरक्षण व आदिवासी परंपराओं को जीवंत रखने उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के कई न्यायाधीशों ने भी आकर उनसे फैसले करने के तरीकों के बारे में जानकारी ली थी। गांव और तहसील स्तर की अदालतों में हर साल 500 से अधिक मामलों का निपटारा किया जाता है।
जिस परंपरा का हवाला, उसे कोर्ट में साबित करना जरूरी
अधिवक्ता देवकांत त्रिवेदी ने बताया जनजातियों की रूढ़िवादियों और प्रथाओं को कानूनी मान्यता है। इससे यदि कोई मामला सरकारी न्यायालय में जाता है तो उसे कोर्ट मान्यता देता है। सरकारी अदालत अपनी सुनवाई और फैसले में आदिवासी समाज की अदालतों के फैसले को शामिल करती है। इसके अलावा किसी भी परंपरा को कोई भी सरकारी अदालत भी नहीं पलटती है। जरूरी है कि जिस परंपरा का हवाला दे रहे हैं, उसे कोर्ट में साबित करना जरूरी है।
निर्णयकर्ताओं में यह लोग होते हैं शामिल
समाज में हर गांव, तहसील, प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर पर अध्यक्ष के रूप में बेल, सभापति के रूप में देवान व पुजारी के रूप में बैगा चुनते हैं, जिसका कार्यकाल 3 साल का होता है। इसके अलावा गांव वालों की सहमति के आधार पर और दोनों पक्षों के समाज के प्रतिनिधित्व को ध्यान में रखते हुए 5 वरिष्ठ और योग्य सदस्यों का चुनाव किया जाता है। इसमें यह ध्यान रखा जाता है कि दोनों पक्षों का कोई सगा या घनिष्ट संबंधी न हो।
उच्च अदालतों की बेंच भी होती हैं निर्धारित
छत्तीसगढ़ की हाईकोर्ट अंबिकापुर में है। यहां पूरे प्रदेश के मामलों की सुनवाई होती है। जशपुर में सुप्रीमकोर्ट है, जहां छग, उड़ीसा, झारखंड आदि प्रदेशों के मामलों की सुनवाई होती है। यह अदालतें हर छह महीने में सुनवाई करती हैं। मुख्य अदालत की दूरी अधिक होने की स्थिति में उच्च अदालत के पदाधिकारी एक पत्र जारी कर संबंधित जिले में समाज के योग्य व वरिष्ठों को सुनवाई करने का अधिकार प्रदान कर देते हैं।
सरपंच ने दी गालियां तो न्यायालय में मांगी माफी
कोरिया जिले के ग्राम पंचायत बुड़ार निवासी सरपंच पूरनचंद पैंकरा ने फोन पर बात करते हुए उपसरपंच सुरेश कुमार साहू से उरांव समाज के लिए गाली-गलौज की। यह ऑडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद 12 सितंबर को गांव में जिला स्तरीय मूलही पड़हा न्यायालय का आयोजन हुआ। इसमें सभी के वयान लेते हुए सरपंच का भी पक्ष लिया गया। इस पर सरपंच ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए समाज के लोगों से माफी मांगी और सभी के साथ मिल-जुलकर रहने का आश्वासन दिया।
कागजात देखने के बाद सेलविस्तर का दावा गलत
जशपुर के बनगांव निवासी चचेरे भाई सेलविस्तर बड़ा और रोमानुश टोप्पो के बीच जमीनी विवाद था। इसमें सेलविस्तर अपने हिस्से की जमीन से ज्यादा हिस्से में दावेदारी कर रहा था। इसे लेकर रोमानुश सरकारी न्यायालय में केस करने का मन बनाए हुए थे। इसी दौरान समाज के लोगों ने कानूनी पचड़े और आर्थिक नुकसान से बचाने ढाई माह पहले समाज की अदालत लगाई। इसमें सभी दस्तावेजों को देखने के बाद सेलविस्तर बड़ा का दावा गलत साबित हुआ। इस पर पंचों ने आपसी सहमति से रामानुश को उसकी जमीन का अधिकार दिलाया।
लोगों ने समाज की अदालत में जाने का दिया सुझाव
जशपुर जिले के कुनकुरी गांव निवासी दीपू और असीम के बीच गाली-गलौज के बाद मारपीट हो गई थी। दोनों पक्ष थाने में रिपोर्ट लिखाने के लिए जा रहे थे। इस दौरान समाज के लोगों ने समझा-बुझाकर उन्हें समाज की अदालत में जाने का सुझाव दिया। यहां पंचों ने दोनों पक्षों को सुनकर समझाइश दी और विवाद को खत्म कर प्रेम के साथ रहने की अपील की। इस पर दोनों पक्षों की रजामंदी से विवाद को खत्म कर लिया गया।
क्रिमिनल मामलों में कोई मान्यता नहीं
शासकीय अधिवक्ता राकेश सिन्हा ने बताया कि क्रिमिनल मामलों में कोई मान्यता नहीं है। पारिवारिक या समाज के अंदर के विवादों को कोर्ट देखती है, लेकिन उसके लिए भी परंपरा का हवाला दिए जाने पर उसे साबित करना जरूरी है।
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