
भैरव अष्टमी सोमवार को मनाई गई। कोरोना के कहर को देखते हुए बूढ़ेश्वर मंदिर में इस बार बाबा काल भैरव को शराब का भाेग नहीं चढ़ाया गया। 200 साल पुरानी परंपरा टूटने न पाए इसलिए पुजारियों ने इस बार उन्हें प्रतीकात्मक सोमरस का भोग चढ़ाया। भक्तों में इसे ही प्रसाद के रूप में बांटा गया।
दरअसल, कोरोना ने हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। भगवान की भोग-प्रसादी भी अब इससे अछूती नहीं है। यही वजह है कि बूढ़ेश्वर मंदिर में हर साल भैरव अष्टमी पर प्रसाद में चढ़ने वाली शराब की जगह इस बार सोमरस ने ले ली है। भोग के लिए मंदिर में ही विशिष्ट विधि से सोमरस तैयार किया गया था। चीफ ट्रस्टी परसराम वोरा ने बताया कि सोमरस बनाने के लिए तांबे के पत्र में कच्चा दूध रखा गया था। गुड़ समेत कई जरूरी सामग्रियां मिलाकर सोमरस तैयार किया गया। जिसे शाम को महाआरती के बाद भगवान को समर्पित किया गया।
सोमरस और शराब एक नहीं... जानिए दोनों में क्या है अंतर
लोगों में यह भ्रम है कि सोमरस और शराब एक है, लेकिन ऐसा नहीं है। ऋगवेद के मुताबिक, सोमरस बनाने में दूध-दही का इस्तेमाल होता है। धर्मग्रंथों में भी शराब के लिए सोमरसपान नहीं, मदिरापन शब्द का उल्लेख मिलता है। जहां तक बूढ़ेश्वर मंदिर में भगवान काे शराब चढ़ाने का सवाल है तो यहां यह परंपरा उज्जैन के महाकाल की तर्ज पर शुरू की गई थी।
पौराणिक मान्यता... देवी की रक्षा करने शिवजी बने थे भैरव
पौराणिक मान्यता है कि प्राचीन समय में इसी तिथि पर भगवान शिव ने देवी मां की रक्षा के लिए काल भैरव अवतार लिया था। जब शिवजी का ये स्वरूप प्रकट हुआ तब उन्होंने भय (भै) बढ़ाने वाली और रव यानी आवाज उत्पन्न की थी। इसीलिए इस स्वरूप को भैरव कहा जाता है। ये अवतार हमेशा देवी मां की रक्षा में तैनात रहता है। शिवजी ने इन्हें कोतवाल नियुक्त किया है। इसीलिए हर देवी मंदिर में काल भैरव भी होते हैं।
ऐतिहासिक तथ्य... मूर्ति 200 और मंदिर 400 साल पुराना
मान्यता है कि बूढ़ेश्वर करीब 4 सौ पहले बूढ़ेश्वर मंदिर की स्थापना की गई थी। 1923 से यह मंदिर पुष्टिकर ब्राह्मण समाज की देखरेख में है। मंदिर ट्रस्ट के पदाधिकारियों ने बताया कि यहां काल भैरव की स्थापना 200 साल पहले की गई थी। तब एक सुपारी को काल भैरव के रूप में स्थापित किया गया था। सिंदूर आदि का लेप चढ़ाते-चढ़ाते आज काल भैरव की ऊंचाई 3 फीट तक हो चुकी है। भगवान को हर रविवार को लेप चढ़ाया जाता है।
प्रसाद बाहर ले जाने की सख्त मनाही... क्योंकि ऐसा करने पर अनहोनी की आशंका
भैरव भक्तों को प्रसादी में कई तरह की मिठाइयां और फल बांटे गए। इस दौरान पुजारी मंदिरों से यह अपील करते भी दिखे कि कोई प्रसाद बाहर लेकर नहीं जाएगा। प्रसाद मंदिर परिसर के अंदर ही ग्रहण करना अनिवार्य है। राजकुमार व्यास बताते हैं कि प्रसाद को लेकर यह परंपरा 200 साल पहले ही शुरू की गई थी। माना जाता है कि अगर कोई प्रसाद बाहर लेकर जाता है तो उसके साथ अनहोनी हो सकती है। ऐसे कुछ मामले सामने भी आए हैं। भक्त भी इस मान्यता पर आस्था रखते हुए मंदिर के अंदर ही प्रसाद ग्रहण करते है।
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